Sunday, August 23, 2015

STOP BEGGING, RECOGNISE YOUR INTERNAL POWER AND LIVE LIKE A KING

 ध्यान एवं कुण्डलिनी जागरण
इससे पहले कि मैं इस विषय में कुछ लिखू, मैं पाठको को एक बात स्पष्ट बता देना चाहता हूँ कि मैं न तो कोई संत होने का दावा करता हूँ और ना ही आपकी कुण्डलिनी जाग्रत करने का । मैंने स्वयं इस राह पर चलते हुए अनेको मुसीबतों का सामना किया है तब कही जाकर मुझे उस परमात्मा ने कुछ ज्ञान दिया है | मेरा मकसद आजकल के तथाकथित गुरुओं की तरह आपको पीछे लगाना कतई नहीं है । मकसद सिर्फ इतना ही है कि यदि मैं किसी को सही मार्गदर्शन देकर शोषित होने से बचा पाया , किसी के समय और धन का सही उपयोग करवा पाया , किसी को अँधेरी गलियों से निकाल कर सही मार्ग दिखा पाया तो मैं समझूंगा कि मेरा ज्ञान सार्थक हो गया। रास्ता तो आपको स्वयं तय करना है | हाँ इतना अवश्य है कि मैं आपको वो तरीका बता सकता हूँ जिससे आपका मार्ग प्रशस्त हो जाये । मेरा तजुर्बा आपको वो समझ दे सकता हैं जिससे आपके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निराकरण हो सके । मुझे किसी का गुरु नहीं बनना और न ही अपने इर्द गिर्द भीड़ इकट्ठी करनी है । मुझे सिर्फ उन साधको को राह दिखानी  है जो सही मायनो में ज्ञान प्राप्ति करके इस समाज को बगैर किसी पाखंड के रास्ता दिखाने का हौसला रखते हो । जो समाज में इन तथाकथित संतो को उखाड़ फेंकने  का जज्बा रखते हो जिनके कारण अध्यात्म बदनाम हो रहा है । जिनके कारण ध्यान और कुण्डलिनी जागरण जैसे गूढ़ शब्द मजाक का विषय बनते जा रहे और एक स्वप्न की तरह लगने लगे है | जिनके कारण हमारे भारतवर्ष की छवि धूमिल हो रही है | इसका एक ही मार्ग है पहले खुद को जाग्रत करो और फिर समाज को रास्ता दिखाओ । मेरा तजुर्बा आपकी अध्यात्म की यात्रा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है बस अपने मुझसे पता पूछना है और आगे बढ़ना है । मेरे पास ठहरने या मुझे अपनी स्मृतियों में लेकर घूमने का कोई औचित्य नहीं । मैं तो मात्र एक हाड मास का पुतला हूँ आप ही की तरह । मंजिल मै नही, मंजिल आत्म साक्षत्कार है । मंजिल अपने आपको पहचान लेना है । मंजिल अपनी शक्तियों को पहचानना है न कि दीन हीन बनकर मेरे या किसी और के आगे सारी उम्र हाथ फैलाना । 


मेरा एक ही सन्देश है:



" STOP BEGGING, DO SOMETHING IN YOUR LIFE,  RECOGNIZE YOUR INTERNAL POWER AND LIVE LIKE A KING"


मेरी अध्यात्म के जगत में व्यवहारिक रूप से खोज बीन की यात्रा

बात उन दिनों की है जब मैं दसवी कक्षा की परीक्षा की तैयारी कर रहा था । वर्ष १९८४ की बात है । उन दिनों पंजाब के हालात काफी तनावपूर्ण थे । स्कूल से छुट्टियां मिल चुकी थी ताकि हम लोग घर पर ही परीक्षा की तैयारी कर सके । रोज की तरह मैंने अपने स्टडी रूम को रात को तकरीबन ११ बजे लॉक किया और सोने के लिए बरामदे में लगी चारपाई पर हर रोज की तरह लेट गया। तारीख या महीना तो मुझे याद नहीं लेकिन उस रात मुझे एक अजीब सा स्वप्न आया । मैंने देखा कि एक मगरमच्छ पेट वाले हिस्से से आधा कटा हुआ है और बड़ी मुश्किल से सांस ले रहा है । मेरी उम्र उस वक्त १६  वर्ष की थी । मैं घबराकर उठ कर बैठ गया । मेरी माँ ने मुझसे पूछा की क्या हुआ और मैंने उनको स्वप्न सुनाया । उन्होंने कहा कि वैसे ही आ गया होगा । मै पानी पीकर सो गया ।

सुबह उठकर मैं नहा धोकर जब दोबारा स्टडी रूम गया तो मैंने देखा कि स्टडी रूम के दरवाजे में एक छिपकली फस कर पेट वाले हिस्से से कटी हुई ठीक वैसे ही तड़पती हुई सांस ले रही है जैसा की मैंने रात्रि स्वप्न में पेट से आधे कटे हुए मगरमच्छ को  तड़पकर सांस लेते हुए देखा था । मैंने पिता जी को सारा वाकया सुनाया और उनको छिपकली भी दिखाई । खैर छिपकली तो बेचारी मर गई| और छोड़ गई कुछ अनसुलझे सवाल जो मेरे मन में उथल पुथल मचा रहे थे ।दो तीन दिन तो मैं ठीक तरह से न तो खाना खा पाया और न ही पढ़ पाया । पिता जी समझ गए कि मेरे मन में कुछ चल रहा है । पिता जी ज्योतिषी तो थे ही इसके अलावा वो ध्यान भी किया करते थे । घर का माहोल अध्यात्म की गूढ़ चर्चाओ से अछूता न था । पिता जी ने कहा कि तुम परीक्षाएं दे लो उसके बाद मैं  तुम्हारे मन में इस स्वप्न और घटना को लेकर जो उथल पुथल मची हुई है  उसका समाधान कर दूंगा ।

जब परीक्षाये खत्म हुई तब मेरे पिता श्री ने बताया कि देखो रात्रि में जब तुम स्वप्न के संसार में प्रविष्ट हुए उस समय तुम्हारी आत्मा इस शरीर से निकल कर सूक्षम शरीर धारण कर इस घर में विचरित हुई । और उसी ने इस छिपकली को तड़पते हुए देखा जो तुमको स्वप्न जैसा लगा । मैंने कहा कि मैंने तो मगरमच्छ देखा था तो उन्होंने बताया कि चूंकि तुम्हारा सूक्ष्म शरीर अभी इतना विकसित नहीं हुआ है इसी कारण तुमको छोटे आकार की छिपकली भी बड़े आकार के मगरमच्छ के जैसे दिखाई दी । उस वक्त बात मुझे पूरी तरह से समझ तो नहीं आई लेकिन एक बात का विश्वास हो चूका था कि इंसान के अंदर कुछ तो ऐसा है जो इन आँखों के बगैर भी देख सकता है । बस उसी दिन से मेरी अध्यात्म के जगत में व्यवहारिक रूप से खोज बीन की यात्रा शुरू  हो गई ।

मेरे मन में एक बात घर कर चुकी थी कि जो मै हूँ इसके अलावा भी मै कुछ हूँ जो इस स्थूल शरीर के बगैर भी देख सकता है । उस समय ध्यान इत्यादि बातो का इतनी गहराई से बोध नहीं था । शुरू शुरू में पिता जी ने चित्त को एकाग्र करने के कुछ प्रयोग करवाये जिनसे मुझे काफी फायदा हुआ । हर रोज मन में नए नए विचार आने लगे । कुछ सवाल जो मेरे द्वारा ही पनपे थे और जिनका मुझे ही समाधान ढूंढ़ना था ' कि क्या है मेरे अंदर जो इन आँखों के बगैर भी देख सकता है, क्या सम्बन्ध है इस सूक्षम जगत और स्थूल जगत का इत्यादि इत्यादि। इसी चक्र में स्टडी का एक साल भी मिस हो गया |जहा कही भी किसी सिद्ध पुरुष की खबर मिलती मिलने चला जाता मार्गदर्शन के लिए । एक बात बताने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि १०० में से ९० ऐसे ही मिले जो सिर्फ और सिर्फ किताबी ज्ञान तक सीमित थे । किताबी ज्ञान उनके पैसे कमाने का साधन था और समाज में मेरे जैसे लोग उनके लिए एक बड़ा बाजार जहा पर उनकी अच्छी खासी बिक्री हो सकती थी । काफी धन और समय बर्बाद हुआ| मन में कई बार निराशा भी हुई कि प्रकाश दत्त कही तुम ऐसे रास्ते पर तो नहीं चल पड़े जहा रेगिस्तान में पानी होने का भ्रम हो । बड़े बड़े संत, साधु नामी गिरामी लेकिन सबके सब खाली मुट्ठी को बंद करे उसमे जादू होने का दावा करने वाले । पल्ले न था इनके ढेला और करते फिर रहे थे मेला मेला |

 

मैं अपनी खूबियों के साथ साथ अपनी कमियों को भी संज्ञान में लेता हूँ । मेरा मकसद अपने आपको किसी के सामने सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति विशेष के रूप में ही लाना नहीं, अपितु अपनी कमियों को भी आपके सामने लाना है ताकि आप अपने जीवन में अपनी कमियों का सुधार करके अपने समय और धन का सही उपयोग कर सके । 

 

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